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सचित्र जैन कथासागर भाग
२
स्त्रियों के साथ विषय-भोग में व्यतीत करता है और वृद्धावस्था रोग एवं देह की चिन्ता में व्यतीत करता है । धर्म करने का तो उसे समय ही नहीं मिलता। मुझे मृत्यु से पूर्व कुछ धर्म का भाता बाँधना चाहिये। मेरे पूर्वज क्या राजा नहीं थे? उनके पास मुझसे क्या कोई अल्प वैभव था ? फिर भी उन सबने सिर पर श्वेत बाल आने से पूर्व यह वैभव छोड़ कर आत्म-कल्याण किया था । जबकि मैं तो सिर पर श्वेत बाल आने पर भी विषयासक्त शूकरवत् रानियों के पीछे पागल बना फिरता हूँ। मैं शुभ दिन देख कर गुणधर कुमार को सिंहासन पर विठा दूँ और इस माया जाल से मुक्त होकर साधु बन जाऊँ । आहा ! कैसा यह सुन्दर एवं निर्मल जीवन है कि जिसमें शत्रु, मित्र सब पर समान दृष्टि, भूमिशयन और वन- प्रदेश में पाद - विहार का आनन्द है । '
'राजन् ! ये विचार मैंने मेरे बाल सँवारती नयनावली के समक्ष व्यक्त किया। मेरा विचार सुनकर उसके नेत्रों में आँसू छलक आये। वह रोती हुई बोली, 'प्राणनाथ ! गुणधर अभी बालक है। उस पर राज्य का उत्तरदायित्व भला कैसे डाला जा सकता है ? संयम ही सत्य है, परन्तु अभी तो चलाओ, इतनी शीघ्रता क्या है ? कुमार तनिक और बड़ा हो जाये तो हम दोनों साथ-साथ संयम अङ्गीकार करेंगे ।'
राजा ने कहा, 'देवी! जीवन का क्या भरोसा ? काल जिसके वश में हो, प्रकृति जिसका मन चाहा कार्य करती हो वही धर्म के लिए प्रतीक्षा करेगा । मैं तो संयम अङ्गीकार करूँगा ही । '
'यदि आप संयम अङ्गीकार करेंगे तो मैं पति-विहिन वन कर थोड़े ही यहाँ रहूँगी ?
राजा ने कहा, 'देवी! जीवन का क्या भरोसा? काल जिसके वश में हो वही धर्म के लिए प्रतीक्षा करेगा. मैं तो संयम अंगीकार करूंगा ही.
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