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________________ www.kobatirth.org यशोधर चरित्र - अधुरी आशा अर्थात् यशोधर राजा ८७ मोर, नेवला, मछली, बकरा, पुनः बकरा और मुर्गा बना; और यह मेरे समीप खड़ी साध्वी मेरी वहन है जो प्रथम भव में मेरी माता थी, जिसने इस हिंसा में मुझे प्रेरणा दी थी, जिसके फलस्वरूप वह Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्वा सर्पः शिशुमारश्च अजा महिषः कुर्कुटी 'कुत्ता, साँप, शिशु-मार, बकरी और मुर्गी बनी । ' राजा चौंका, भगवन्! आपका यह समस्त वृत्तान्त आप विस्तार पूर्वक कहें ।' मुनि ने प्रथम भव से अपना वृत्तान्त कहना प्रारम्भ किया । (४) 'राजन्! अनेक वर्षों पूर्व की यह वात है । मैं अपना प्रथम भव बता रहा हूँ । मालवा में उज्जयिनी नगरी है। वहाँ अमरदत्त का पुत्र सुरेन्द्रदत्त राज्य करता था । राजा का नाम सुरेन्द्रदत्त था फिर भी लोग उसे राजा यशोधर कह कर सम्बोधित करते थे, क्योंकि उसके राज्य में प्रजा सुखी थी । रोग और भय तो वहाँ नाम के लिये भी नहीं थे । उसके राज्य में माँगने पर वर्षा होती थी और उसका कहीं कोई शत्रु नहीं था । दशों दिशाओं में उसका यश फैला हुआ था, जिसके कारण वह 'यशोधर' कहलाया । राजा के नयनावली नामक पटरानी थी । राजा-रानी अत्यन्त सुखी थे । उनके सुख के फल स्वरूप गुणधर नामक उनके एक पुत्र हुआ। राजा को राजकुमार के प्रति अत्यन्त प्यार था । उसका तो यही विश्वास था कि यह पुत्र मुझसे अधिक योग्य बनेगा और सम्पूर्ण मालवा में मुझसे भी अधिक नाम करेगा। वही यशोधर राजा मैं हूँ । राजन्! समय व्यतीत होता गया । एक वार मैं रानी के साथ महल के झरोखे में बैठा हुआ था। रानी मेरे बाल गूंथ रही थी और उनमें पुष्प पिरो रही थी । इतने में हाथ में एक श्वेत बाल आया । उसने वह बाल तोड़ कर मेरे हाथ में दिया । रानी के मन से तो यह सामान्य बात थी, परन्तु मेरे हाथ में बाल आते ही विनोद की ओर प्रेरित मेरा मन खेद-मार्ग की ओर मुड़ा । मैंने सोचा, 'मैं अनेक वर्षों से इन स्त्रियों के साथ विषय-सुख का उपभोग कर रहा हूँ फिर भी मैं सन्तुष्ट नहीं हुआ । मैं समझ कर इन विषयों का परित्याग कर दूँ तो अच्छा है, अन्यथा ये श्वेत बाल कह रहे हैं कि कुछ ही दिनों मे मेरा स्वामी यम आकर तुझे उठा ले जायेगा और तुझे विवश होकर ये विषय, यह राज्य और जिन्हें तू प्रिये, प्रिये कहता है वे समस्त रानियाँ तुझे छोड़नी पडेगी । अतः समझ कर छोड़ दे । बालस्य मातुः स्तनपानकृत्यम् युनो वधूसंगम एव तत्त्वम् । वृद्धस्य चिन्ता चलचित्तवृत्तेरहो न धर्मक्षण एव पुंसाम् । । १ । । संसार में तो मनुष्य बाल्यकाल माता के स्तन-पान में व्यतीत करता है, यौवन For Private And Personal Use Only -
SR No.008588
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhranjanashreeji
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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