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सचित्र जैन कथासागर भाग
इच्छा रखना सचमुच भ्रम है। रक्त से हाथ धोने से हाथ स्वच्छ नहीं होते। उसके लिए तो निर्मल जल चाहिये । शान्ति एवं कल्याण के लिए तो हिंसा नहीं होती । कल्याण के लिए तो कल्याणकारी कार्य चाहिये । हिंसा तो पर-भव में बहरे, गूँगे और जन्मान्ध बनाती है और दुर्गति के भयंकर कष्ट देती है। मारिदत्त ! जब मैं तुम्हारा व्यवसाय देखता हूँ तब तेरे समक्ष मुझे अपने पूर्व भव दृष्टिगोचर होते हैं। मैंने अपने प्रथम भव में केवल आटे का एक मुर्गा बना कर उसका वध किया था। उसके प्रताप से मैं अनेक भवों में भटका हूँ। उन दुःखों का स्मरण करके भी आज मेरा दिल दहल उठता है, जबकि आप तो हजारों जीवों का साक्षात् संहार करते हो । राजन्! आपका क्या होगा ? समझदार मनुष्य तो अनर्थ देखकर अनर्थ से बचते हैं, परन्तु राजन्! मैंने तो अनर्थ का अनुभव करके साक्षात् हिंसा का दुःख अनुभव किया है और आप यदि मेरे दृष्टान्त से नहीं रुकोगे तो आपके दुःख की सीमा कहाँ जाकर रुकेगी ?"
मारिदत्त का हृदय तुरन्त परिवर्तित हो गया । देवी का हिंसागृह पलभर में अहिंसागृह तुल्य बन गया । वह बोला, 'मुनि! आपने हिंसा करने के साक्षात् फल का क्या अनुभव किया है ? हे भगवन्! मुझे अपना अनुभव बता कर सच्चे मार्ग पर लाओ ।'
राजन्! मेरा नाम क्यों पूछते हो? आपको मनुष्य की बलि चढानी है तो मैं तैयार हूँ. जीवन में मेरी कोई अपूर्ण आशा नहीं हैं.
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मुनि ने कहा, 'राजन् ! मैने प्रथम भव में आटे का मुर्गा बनाकर उसकी हत्या की थी अतः मैं
'मयूरो नकुलो मीनो मेषो मेषश्च कुर्कुट: '
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