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यशोधर चरित्र - अधुरी आशा अर्थात् यशोधर राजा
और आपके विना यहाँ रह कर मुझे क्या सुख का आनन्द लेना है? जहाँ आप वहाँ मैं।' __मैने कहा, 'रानी! तेरी देह अत्यन्त सुकोमल है। तप करना तेरे लिए सरल नहीं है, क्योंकि वहाँ तो भूमि शयन, पाद-विहार, घर-घर भिक्षा माँगना आदि समस्त क्रियाएँ तेरे लिए अत्यन्त कठिन होंगी और तू साथ आकर मेरे लिए विघ्न-रूप बनेगी। तू तो यहाँ राजकुमार का पालन-पोषण कर और मेरे लिए मार्ग प्रशस्त कर।'
रानी बोली, 'जिसने उसे जन्म दिया है और जिसने आज तक उसका लालन-पालन किया है, उसका भाग्य उसका पालन करेगा। आप उसकी चिन्ता त्याग कर संयम ग्रहण कर रहे हैं, तो मैं उसकी चिन्ता रखकर यहाँ क्यों पड़ी रहूँ? नाथ! आपकी जो गति है वही मेरी गति है।'
इतने वार्तालाप में सन्ध्या हो गई। मैं भोजन करने चला गया। भोजन के बाद कुछ वार्तालाप करके इसी विचार में लीन मुझे नींद आ गई । नींद तो गहरी आई परन्तु जाग्रत होने पर उस नींद में देखे हुए स्वप्न का विचार करके मैं अत्यन्त चिन्तित हो गया।
मैं अभी शय्या पर से नीचे भी नहीं उतरा कि मेरी माता चन्द्रमती (यशोधरा) वहाँ आई । मैंने शय्या से नीचे उतर कर माता के चरणों का स्पर्श किया, उसे नमस्कार किया, परन्तु माता मेरा म्लान मुख देखकर समझ गई और बोली, 'पुत्र! आज उठते ही उदास क्यों है?' ___ मैंने उत्तर दिया, 'माता! आज मैंने अत्यन्त ही भयानक स्वप्न देखा है जिसके कारण यह उदासी है।'
'जो हो वह स्वप्न मुझे वता।' माता ने स्वप्न जानने का आग्रह किया। __ मैं वोला, 'माता! आज अन्तिम प्रहर में स्वप्न में मैंने एक सुन्दर विशाल महल देखा। उस महल की सातवीं मंजिल तक मैं चढ़ा और सातवीं मंजिल पर लगे हुए स्वर्णमय सिंहासन पर मैं बैठा। इतने में आप वहाँ आई और आपने मुझे धक्का दिया। मैं लुढ़कता हुआ सीधा भूमि पर आया । तनिक समय के पश्चात् जब मैंने ऊपर दृष्टि डाली तो आप भी मेरे पीछे लुढ़कती हुई भूमि पर आ गिरी।'
माता सीने पर हाथ रख कर बोली, 'तत्पश्चात् क्या हुआ?'
मेरे कार्य में माता अन्तराय न डाले इसलिये स्वप्न में कल्पित बात जोड़ कर कहा, 'मैंने इस अधःपतन को टालने के लिए मस्तक का लोच करके मुनि-वेष धारण किया और पुनः सातवी मंजिल पर चढ़ा । माता! मैंने यह स्वप्न देखा है परन्तु अब तो उक्त
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