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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६९ किसी का बुरा मत सोचो अर्थात् धनश्री की कथा इसलिए योगी ने धनश्री द्वारा दिये गये वे दोनों लड्डू उसके पुत्रों को दे दिये । बालक प्रसन्न होकर लड्डू खाकर जल पीकर निकटस्थ वृक्ष के नीचे सो गये। योगी भोजन करके अपनी कुटिया में गया परन्तु वे दो बालक वहाँ सोये और पुनः जगे ही नहीं। धन एवं धनश्री ने पुत्रों की अत्यन्त खोज की तव उस वृक्ष के नीचे वे दोनों मृत पाये गये । अत्यन्त रुदन आदि करने पर उन्होंने मान लिया कि ये दोनों बालक साँप के काटने से मर गये है। बालकों के देह का अग्निसंस्कार किया और कई दिन व्यतीत होने पर धन एवं धनश्री का शोक कम हुआ। (३) बालकों की मृत्यु हुए छः माह व्यतीत हो गये । धनश्री चबूतरे पर बैठी थी, इतने में 'अलख निरंजन' कहता हुआ योगी आया और वोला, 'जो जैसा करेगा वह वैसा पायेगा।' इन शब्दों से धनश्री को छ: माह पूर्व प्रदत्त विष-मिश्रित लड्डूओं का स्मरण हुआ। वह आश्चर्य-चकित होकर सोचने लगी, 'मैंने तो इसे विष के लड्डू दिये थे, परन्तु यह तो अभी तक उन्हीं शब्दों का उच्चारण कर रहा है। क्या इस पर विष का प्रभाव नहीं हुआ अथवा इसने विष के लड्डूओं को परख कर उन्हें फेंक दिया।' योगी के समीप आने पर धनश्री ने कहा, 'महाराज! आपको स्मरण है कि मैंने छः माह पूर्व आपको भिक्षा में दो लड्डू दिये थे?' योगी ने कहा, 'अच्छी तरह स्मरण है।' 'तो वे लड्डू खाये थे अथवा फैंक दिये थे?' योगी ने कहा, 'बहन! वे दो लड्डू मैंने अपने पास खड़े दो बच्चों को दिये थे। उन्होंने प्रसन्न होकर लड्डू खा लिये थे और समीपस्थ वृक्ष के नीचे जल पीकर सो गये थे। मेरी ओर बालक ताकते रहें और मैं लड्डू खाऊँ तो क्या उचित है?' ये शब्द सुन कर धनश्री के नेत्रों में आँसू छलक आये। वह कुछ कहे उससे पूर्व तो योगी 'जो जैसा करेगा वह वैसा पायेगा' कहता हुआ अदृश्य हो गया और धनश्री भी बोली, 'योगी! आप जो कहते हैं वह सच है कि - कार्यं परस्मिन्नऽहितं न कुर्यात, करोति यादृग लभते स तादृग। दत्तं विषानं जटिने धनश्रिया तेनैव तत्पुत्रयुगं विनष्टं ।।१।। 'दूसरों का अहित नहीं करना चाहिये । जो जैसा करता है वैसा प्राप्त करता है। धनश्री ने योगी को विष-मिश्रित अन्न प्रदान किया, परन्तु उस अन्न से धनश्री के ही दो पुत्रों की मृत्यु हो गई।' (प्रबन्धशतक से) For Private And Personal Use Only
SR No.008588
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhranjanashreeji
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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