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सचित्र जैन कथासागर भाग - २
(३४) पूर्व-भव श्रवण
अर्थात् चन्द्रराजा का संयम
(१) एक बार वनपाल ने आकर चन्द्र राजा को वधाई दी, 'राजन्! उद्यान में भगवान श्री मुनिसुव्रत स्वामी तीर्थंकर का पदार्पण हुआ है।'
बधाई सुनकर चन्द्रराजा अत्यन्त हर्षित हुआ। उसने वनपाल को सात पीढ़ियों तक चले उतना पुरस्कार दिया। तत्पश्चात् राजा ने चतुरंगी सेना तैयार की। नगर को ध्वजा-पताकाओं से सजाया, हाथी-घोड़े-रथ, पालखी सजा कर समस्त परिवार तथा प्रजाजनों को साथ लेकर राजा नगर के बाहर आया। भगवान का समवसरण देख कर वह अत्यन्त प्रफुल्लित हुआ और जिस प्रकार मनुष्य जीवन में एक के पश्चात् एक गुणों की सीढ़ियाँ चढ़ता है उसी प्रकार वह समवसरण की सीढ़ियाँ चढ़कर भगवान की प्रदक्षिणा करके पर्षदा में बैठा। साथ आये हुए प्रजाजन भी उचित स्थानों पर बैठ गये।
सभी शान्त होकर भगवान के समक्ष स्थिर दृष्टि से देखने लगे कि मेघों के समान गम्भीर वाणी में भगवान 'नमो तित्थस्स' कह कर योले -
'भूल्यो चेतन निकेत स्वभावनो विभावे तव आव्यो रे'
'हे भव्य जीवो! यह जीव अपने ज्ञान-दर्शन-चारित्र के स्वभाव को भूल कर जड़ के स्वभाव में प्रसन्न होता है, जिससे ही अनर्थ-परम्परा उत्पन्न करता है । जीव को देह अपनी प्रतीत होती है, धन अपना प्रतीत होता है, पुत्र अपने प्रतीत होते हैं, पत्नी अपनी प्रतीत होती है और संसार में जो यहाँ छोड़ कर जाना है वह सब अपना प्रतीत होता है; परन्तु जो सदा साथ रहने वाले हैं वे ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप धर्म पराये प्रतीत होते हैं। जब तक उसका यह दृष्टि भ्रम दूर नहीं होता, तब तक उसका कल्याण कैसे हो सकता है?
जीव अव्यवहार राशि से लगा कर इस प्रकार अनेक वार ऊपर आया परन्तु ऐसे विभ्रम के कारण अनेक बार पुनः उसका पतन हुआ | चेतन को कल्याण के लिए स्वभावदशा को समझना और विभाव-दशा का परित्याग करना आवश्यक है। यह जब पूर्ण रूपेण आपको समझ में आ जायेगा तब आप किसी की हिंसा नहीं करेंगे। इन्द्र की
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