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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१ आरीसा भवन में केवलज्ञान अर्थात् चक्रवर्ती भरत मरुदेवा माता के नेत्रों में से हर्षाश्रुओं का प्रवाह उमड़ पड़ा। और रो रोकर बँधे हुए प्रगाढ़ कर्म-पडल टूट गये। उन्होंने पुत्र की ऋद्धि स्वयं देखी और उसमें तन्मय होकर बोली, 'भरत! तू सत्य कह रहा था । ये तो तीन लोक के स्वामित्व का उपभोग कर रहें है । मैं अज्ञानी एवं मोहान्ध उसे वास्तविक रूप में नहीं पहचान सकी । मैंने पुत्र का शोक व्यर्थ किया। मुझे जो करना चाहिये था वह मैंने कुछ नहीं किया। पुत्र ने मोह का परित्याग किया, उसी प्रकार मुझे भी मोह का परित्याग करना चाहिये था। किसके पुत्र और किसकी माता?' तत्पश्चात् भरतेश्वर की सवारी आगे बढ़ी, त्यों माता की विचारधारा भी अन्तर्मुखी बन कर आगे बढ़ी और उन्हें मार्ग में हाथी पर ही केवलज्ञान प्राप्त हुआ। _ 'माताजी! क्या विचार कर रही हो? किस ध्यान में हो?' भरतेवर बोलें इतने में तो आकाश में देवदुंदुभि बज उठी और देव बोले, 'भरतेधर! माताजी को केवलज्ञान हो गया है। राजन्! क्या माता और क्या पुत्र? अपना पुत्र ऋषभदेव जो मोक्ष-लक्ष्मी प्राप्त करता है वह लक्ष्मी कैसी है? यह देखने के लिये माता पहले मोक्ष में गई और पुत्र भी कठोर तप करके केवलज्ञान प्राप्तकर सर्व प्रथम उक्त केवलज्ञान उन्होंने माता को भेजा। ऐसी माता-पुत्र जोड़ी प्राप्त होना विश्व में अत्यन्त दुष्कर है।' देवों ने मरुदेवा माता का शव क्षीर-सागर में डाल दिया। तत्पश्चात् देव एवं भरत मध्यरात्रि के चन्द्रोदय के समय अन्धकार एवं चाँदनी दोनों विद्यमान होते हैं, उसी TIO माताजी! सुनो यह देवदुंदुभि की ध्वनि! आपके पुत्र को केवलज्ञान हुआ है उस निमित्त देवता हर्ष से वाजिंत्र बजा रहें है. For Private And Personal Use Only
SR No.008588
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhranjanashreeji
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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