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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandiri ३२ सचित्र जैन कथासागर भाग - २ प्रकार माता की मृत्यु से उदासीनता और उनके निर्वाण से हर्ष, इस प्रकार मिश्रित भाव युक्त हुए और वे भगवान के समवसरण में प्रविष्ट हुए। भरतेश्वर ने भगवान के केवलज्ञान का महोत्सव मनाने के पश्चात् चक्ररत्न की पूजा की। उसके बाद तो उन्हें एक एक करके चौदह रत्न प्राप्त हुए। भरतेश्वर ने दिग् यात्रा पर प्रस्थान किया। मागध, वरदाम एवं प्रभासदेव की साधना के पश्चात् उन्होंने भरतक्षेत्र के छः खण्डों और विद्याधरों के राजा नमि-विनमि को अपने अधीन बनाया । विनमि ने अपनी पुत्री सुभद्रा का विवाह भरतेश्वर के साथ कर दिया जो अन्त में स्त्री-रत्न बनी। भरतेश्वर ने छः खण्डों के उपरान्त नैसर्प, पाण्डुक आदि नौ निधियाँ प्राप्त की। इस प्रकार भरत चौदह रत्नों, नौ निधियों, बत्तीस हजार राजाओं, छियाणवे करोड़ गाँवों, बत्तीस हजार देशों, चौरासी लाख हाथियों, अधों, रथों और छियाणवे करोड़ पैदल सेना आदि के स्वामी बने और वे चक्रवर्ती बने । ‘सुन्दरी! यह क्या हुआ? कैसा तेरा रूप-लावण्य और कैसी मोहक तेरी देह थी। तेरी वह आभा और बल सब गया कहाँ?' 'देह का स्वभाव है, वह सदा समान थोड़े ही रहती है?' सुन्दरी ने सस्मित भाव से कहा। भरत चक्रवर्ती ने सेवकों को धमकाते हुए कहा, 'सेवकों! मैं दिग्यात्रा पर गया था परन्तु तुम तो सब यहीं पर थे न? सुन्दरी की देह ऐसी कैसे हो गई? औषधियों और खाद्य-सामग्री का क्या अभाव था कि यह ऐसी अशक्त एवं निस्तेज हो गई?' सेवकों ने उत्तर दिया, जिसके पास देवता स्वयं उपस्थित हों उसे भला क्या कमी होगी? सुन्दरी को सदा दीक्षित होने की धुन थी। उन्हें आपने दीक्षा ग्रहण करने की अनुमति प्रदान नहीं की, इसी कारण आप दिगयात्रा पर निकले तब से आज तक ये आयंबिल तप करती रहीं और अब भी कर रही हैं। _ 'सुन्दरी! दीक्षा का तेरा निश्चय ही है तो मैं तुझे नहीं रोकूँगा। मैं तो राज्य-वैभव का त्याग करके अपना कल्याण नहीं कर सकता परन्तु आत्म-कल्याण करने से मैं तुझे क्यों रोकूँ?' भरतेश्वर ने दीक्षा के लिए डाले गये अन्तराय के लिए पश्चाताप For Private And Personal Use Only
SR No.008588
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhranjanashreeji
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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