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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पर चढ़ गए. आश्चर्यकारी इस दृश्य को देखकर उन कोडिन्न आदि तीन मुख्य तपस्वियों ने अपने-अपने पाँच -पाँच सौ शिष्यों के परिवारों सहित मन ही मन हृदय में उन्हें अपना गुरू बनाने का निश्चय कर लिया. जब गौतमस्वामी अष्टापद के ऊपर की यात्रा के बाद लौटकर आए तो सभी तापस गुरु गौतमस्वामी को समर्पित हो गए. गौतमस्वामी उन १५०० तापस शिष्यों को लेकर भगवान के पास आने लगे. रास्ते में भोजन का समय होने पर शिष्यों को तप का पारणा कराने की इच्छा से एक छोटा पात्र लेकर आसपास के गाँव में जाकर खीर ले आए. उन तापस शिष्यों ने सोचा इतनी छोटी सी कटोरी-भर खीर से क्या होगा ? किसको देंगे, किसको नहीं ? इस प्रकार संकल्प-विकल्प करने लगे. गौतम गुरु ने सब को पंगत में बैठाकर एक के बाद एक सब को भरपेट पारणा कराया. तापस मुनि वृंद आश्चर्यचकित हो उठा. परंतु यह तो उन महान गुरु के अँगूठे में बसी अक्षीणमहानसी लब्धि का प्रभाव था. आज भी हम मांगलिक रूप में गाते है - अंगूठे अमृत वसे लब्धि तणा भंडार... शिष्यों को बड़ी श्रद्धा हो गई की हमारा बेड़ा पार हो गया. सच्ची श्रद्धा से तत्काल समकित पाकर तापस क्रमशः केवलज्ञानी हो गए. यह उनके अद्भुत महिमावन्त चरित्र का एक अंश है. हम भी सच्चे भाव से उनका नाम स्मरण करते है तो इच्छित की प्राप्ति तुरंत होती है, यह अनुभव गम्य है. गौतमस्वामी के जीवन का एक सुंदर गुण था . प्रभुभक्ति, अनहद भक्ति! गुरु गौतमस्वामी अपनी साधना की उस उच्चतम सीमा पर पहुँच गए थे कि अब प्रभुभक्ति का यही गुण उनके केवलज्ञान की प्राप्ति में बाधक बन रहा था. भगवान स्वयं यह जानते थे अतः उन्होंने अपना निर्वाण नज़दीक जानकर, गौतमस्वामी को १४ For Private And Personal Use Only
SR No.008568
Book TitleGautam Nam Japo Nishdish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharnendrasagar
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2001
Total Pages124
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & Worship
File Size5 MB
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