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अथ श्रीमद् देवचन्द्रजी कृत श्री सिद्धाचलगिरि मंडन श्री आदिजिन विनतिरूप स्तवन प्रारंभः
रत्नाकर पच्चीशो अनुवादरूप.
सुण जिनवर शत्रुंजय धणोजी, दासतणो अरदास ए-राग. श्रेय श्रीरति गेहलोजो, नरसुरपतिनतपाय; सर्वजाण अतिशय निधिजी, जय उपयोगी अमाय. १ जगतगुरु विनतडो अवधार. (ए टेक )
जग आधार कृपामयी जी, निष्कारण जगबंधु; भवविकारगद टाळवा जी, वैद्य अच्छे गुणसिंधु ज०२ जाण भणी जे भाषवुं जी, ते तो भालिमभाव; पिण अशुद्धता आपणी जी, विनवीये लहि दाव, ज०३ मावित्र आगळ बालके जी, इयुं लीलें न कहाय; साधुं पश्चात्तापथी जी, निज आशय कहिवाय. ज०४ दान शील तप भावना जी, जिन आणाओं न कीध; वृथा भम्यो भवसागरे जी, आतमहित नवि लीध. ज०५ क्रोध अगनि दाधो घणुं जी, लाभ महोरग दष्टः मान ग्रस्यो माया कळ्यो जी, किम सें परमेष्टि. ज०६ हित न कर्यो में परभवं जी, इहां पण नवि सुख चुंप; हे प्रभु ! अमशत भव 'कथा जो, केवल पूरणरूप. ज०७
१ कर्या.
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