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प्रभु मुख चंद्रसंयोगथी जी, महानंदरस. जोर: नवि प्रगटयो तिण वज्रथी जी,मुजमन अतिहि कठार.८ भव भमवे दुर्लभ लहोजी, रत्नत्रयी तुम साथ; ते हारी निज आलसें जी, किहां पुकारुं नाथ. ज०९ मोहविजय वैराग्यजे जी, ते परवंचन काम: निज पर तारन देशना जी, ते जनरंजन ठाम. ज०१० विद्यातत्वे परिखवा जी, ते परजीपण ढाल; परमदयाल किंतो कहुं जी, मुज हांसीनी चाल. ज०११ परनिंदा मुख दुखव्या जी, पर दुःख चिंत्यारे मन्न: परस्त्री जोवे आंखडी जी, किम थास्युं हुं धन्न. ज०१२ कामवश्यं विषयीपणे जी, भोगविडंबन वात; ते श्युं कहिये लाजता जो, जाणो छो जगतात. ज०१३ परमातमपद नीपजे जी, श्रीनवकार प्रभाव; तेह कुमंत्रे ध्वंसियो जो, इंन्द्रीसुखने दाव. ज०१४ श्री जिन आगळ दुखव्यो जी, करी कुशास्त्रनो रंग: अनाचार अति आचर्या जी, भूलिं कुदेवने संग. ज०१५ इष्टिप्राप्य प्रभुमुख तजी जी, ध्यावं नारीरूप; गहनविषे विषघूमथी जो, न ग्रहुँ आत्मस्वरूपः ज०१६ मृग नयणी मुग्ब निरखतां जी, जे लागो मन राग; न गयो श्रुतजल धेोवतां जी,कुण कारण महाभाग.ज०१७ अंग चंग गुण नवि कला जी, नवि वर प्रभुतारे कांयः तो पण साचुं लोकमें जी, मान विडंबित काय. ज०१८
२ वंचन.
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