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विधि अने प्रतिषेध सूत्रने ज्ञानी जाणे, करी कुयुक्ति मूर्ख मानवी मिथ्या ताणे; संयम खप करता मुनिवर इम ज्ञानी भाखे, शास्त्रोनो परमाथ सत्य तो समजु चाखे, सुंदर रास श्रीपाळनो यशोविजयजी बोलीआ, समजु ने आत्मार्थि जनना अन्तर पडदा
खोलीआ. ॥८९।। जिनाज्ञा प्रतिपाळ श्रावको शोभे सारा, गंभीर ने सुविनीत श्रावकना अवतारा; श्रद्धावंत दयालु लज्जागुणना धारी, अनिन्दक अक्रूर अने समतागुण धारी; प्रतिक्रमण दो वारनुं नय व्यवहारे जाणीए, सद्गुरुनी भक्तिमां ते लीन श्राद्ध पिछाणीए. ॥९०॥ वेर झेर ईर्ष्या क्लेशादिक दूरे वारे, ज्यां ज्यां देखे गुण हृदयमां ते ते धारे; संघ सदा विद्यमान चतुर्विध निश्चय धारे, तरतमयोगे मुनिवर्ग संप्रति जे भाळे; अवगुण उपर गुण करे ने परोपकारे रक्त छे, जिनेश्वरनी वाणी सुणवा प्रेमथी आसक्त छे. ॥९॥ मांस मदिरा अभ्यक्ष वस्तु कदी न खावे, अभक्ष्य वस्तु श्रावकने स्वप्ने पण नावे; जुगटुं वेश्या परदारानो श्रावक .त्यागो, जिनेश्वरनो धर्म खरो गुरुनो जे रागी; गुरुवन्दन त्रिकालमा यथाशक्ति व्रत धारतो, क्रोध माया दोषने सहु ज्ञानथी जे वारतो. ॥१२॥
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