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३७६ दृढ श्रद्धाथी श्रावक साचा शास्त्रे भाख्या, सद्गुरुगमयी सूत्रतणा रस जेणे चाख्या; जैन धर्मनीवृद्धिमाटे निशदिन राता, दुःखी श्राद्धने खवराव्या विण जे नहि खाता; तन मन धनने शक्तिथी जैनधर्म फेलावता, नव तत्त्वादिक जाणश्रावक जैनधर्म दीपावता. ॥१३॥ करे कमाणी न्यायवृत्तिथी श्रावक साचो, गुणधारक सुश्राद्ध देखीने मनमा राचो: चाले ज्ञास्त्राधार अन्यनां मर्म न भाखे, गुरु पासे पञ्चखाण करे समतारस चाखे; सद्गुरु श्रद्धा भक्तिमा जीवन जेर्नु जाय छ, मुनिगुरुनो भक्त श्रावक साचो तेह गणाय छ. ॥१४॥ जिन प्रतिमा पूजन वंदन करतो रहेवे, हितशिक्षाने धरी कोइने आळ न देवे; चोरी चाडी त्याग करीने सद्गुण सेवे, परने पीडाकारक वाणी कदा न कहेवे; मुनिवर भक्त सुश्राद्ध छे समजे समजु सानमां, गुरु गृहस्थी मानीने ते पडे नहि तोफानमां. ॥९५।। कोइ कहे छे सर्वधर्मनां पुस्तक वाचु, करी परीक्षा ग्रहुं हृदयमा जे छ साचुं; अन्य लिंगी पण मुक्ति गया इम शास्त्रे भाख्यु, जैनधर्मनी श्रद्धामा म दिल न राख्यु: बोले एवं बापडा अज्ञाने जे अन्ध छ, मिथ्यातत्त्वे खुंचीया तस हृदय चक्षु बन्ध छ. ॥१६॥
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