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दुःषमकाळे यथाशक्तिथी संयम साधे, धन्य धन्य एवा मुनिवरनी कीर्ति वाधे; प्रतिक्रमणमां दोष थएला सहु आलोवे, समता जलथी पाप मेलने मुनिवर धोवे; सम्यक्त्व तेने जाणीए, साधु सेवा मनरुचे, चक्रवर्तिक्षीरभोजन रंकपेटे नहि पचे. ॥८॥ वीरप्रभुए स्थविरकल्पने स्थाप्यो हाथे, गणधर स्थाप्या स्थविर कल्पमांत्रिभुवन नाथे; स्थविरकल्प मुनि गच्छे वसतां मंगळमाळा, पामे अभिनव ज्ञान मुनिवर संयमपाळा; स्थविर कल्प मुनिगच्छमांयुगप्रधानोथावशे, थया केइक गच्छ नायक समजु मनमां भावशे. ॥८६॥ नहि मानो व्यवहारधर्मने जाणो क्याथी? वों छो व्यवहारे निश्चय मानो साथी? नयव्यवहारे वीरप्रभुन शाशन चाले, अज्ञानपणाथी पडे बाल केइ मिथ्याजाळे निमित्त ते व्यवहार छे ने गुरु तनुथी साधना, सद्गुरुगम ज्ञान लेजो नहिं करो विराधना; ॥८॥ गंभीर नयना वाद सूत्रथी समजे ज्ञानी, गुरुगम विण भटकाय मूरख निजमतिथीमानी गुरुगम ज्ञान ग्रह्याथी सघळु लेखे आवे, सूत्रतणा बहु भेद कुंचीओ तेनी पावे; मुनि कृपाथी पामीए सापेक्ष जे छे साध्यता, सातनयोना ज्ञानथी तो प्रगटशे परमार्थता. १८८||
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