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૩૨. खाय पीवे ने वस्त्र धरे छे शास्त्राधारे, दीक्षा देइ भव्यजनोने भवजळ तारे; वेठीने बहु दुःख मुनिवर विचरे सारा, जंगम मुनिवर तीर्थ जगत्मां जय जयकारा; बहुमान कीजे साधुनुं त्वरित आतम तारीए, साधु निंदा द्वेष करतां भव्य जीवने वारीए. ७७॥ गुणो श्राद्धना नहि पोतामां मुनिने निंदे, बांधे बहुलां पाप उलटीमतिना छदे; गुण मूकी अवगुण ग्रहे छे निंदक पूरो, निंदा लवरी मुनिवरनी करवामां शूरो; शोक्य जेवा श्रावको ते दोषदृष्टि देखता, दोषनुं तो ठाम पोते नहि पोताने पेखता. ॥७॥ कोइ कहे छे वस्त्र धर्याथी साधु शानो? वस्त्र धरे त्यां राग एहवं मनमां मानो; मुनिवर होवे नग्न एहवु मनमा मार्नु, होवे मुनिवर नग्न एहवें सत्य पिछार्नु; आगम युक्ति न जाणता मत पोतानोताणता, जिन कल्पीने स्थविरकल्पने मूढमति नहि
जाणता. १७९॥ पकडयुं गद्धा पुच्छ पामर कदी न मूके, हठ कदाग्रह जोरतोरमां ज्यां त्यां मूंके; नहि समजे जे युक्ति मुक्ति तेनी शुं ? थावे, करी तीर्थ उच्छेद सुखडां क्यांथी पावे; वस्त्र उपर राग तो निज शरीर उपर सोगणो, वस्त्र करतां राग मोटो देहनो मनमां भणो. ॥८॥
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