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सागरनुं उपमान शीयळने शास्त्रे भाख्यु, सर्वव्रतोमां श्रेष्ठ एह, शास्त्रे दाख्यु; शीयळधारक मुनि गुरुने वन्दन कीजे, जोडीने बे हाथ वांदणां भावे दीजे; शीयळधारक साधुनो बोध सहुने लागतो, घरबारीनो बोध काचो काम जेने जागतो. ॥७३॥
माया ममतामूळ परिग्रह गृहना जेवो, धन धारणथी लोभ वधे छे समजो एवो; कुटुंब लक्ष्मी त्याग कर्याथी त्याग ज साचो, तजी बाह्यनी ग्रंथि मुनि देखीने माचो; माया ममता हेतुने त्याग्याथी सहु त्यागीए, निमित्त कारण मोहनुं तेजाणी घटमां जागीए. ॥७॥ धन्य धन्य अनगार जगत्मा साचा त्यागी, साचो आतम एक तेहनो जे छे रागी: आत्मस्वरूपे लीन सदा सयमने पाळे, त्यजी बाह्यर्नु भान, वृत्तियो अन्तर वाळे निर्ग्रन्थ एवा सेवीए साची सुखकर सेव छे, धर्मध्याने धीर साधु निज रमणता टेव छे. ॥७॥ उपदेशक मुनिराज जगत्मा छे उपकारी, त्यागो पुद्गल राग चेतना निश्चय धारी; श्रुतज्ञाने व्यवहार धर्मनो अंतर धारी, जीवन गाळे धन्य मुनिनी छे बलिहारी; यथाशक्ति अभ्यासथी संयममां राची रहे, दोषदृष्टि जीवडा एवा मुनिवर शुं ? लहे. ॥७॥
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