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૩૬ર
पंचमहावत मूळ उत्तर गुणना अधिकारी, शुद्धप्ररुपक जेह तेह जाणो अनगारी; जघन्यथी सेवाय कनक कान्ताना त्यागी, मूलमहाव्रतपाल मुनिगणना जे रागी; साधु एवा सेवतां धर्म मर्मने जाणीए, तेमाटे हे भव्य लोको!! मुनिगुरु मन आणीए. ॥३७॥
चलवे महा पाखंड अध्यातम वचनो बोली, भाखीने उत्सूत्र सत्यनी वात न तोली; चलवे अन्तर पोल बोल बोलीने जूठा, बांडा नहि बंधाय गमे ते बोले बूठा; जिनाज्ञानहि जाणता जन भोळा केइ भरमाय छे, घरबारीने साधुपेठे मानीने भटकाय छे. ॥३८॥ कोइक पूछे प्रश्न गृहस्थ गुरु ते शानो ? ग्रह्यं नहि चारित्र गुरु तेने शुं मानो, समकितथी नहि गुरु चारित्रे गुरुओ भाख्या, नहि उच्चरे चारित्र गृहस्थी ते तो दाख्या; गृहस्थ साधु सानशो तो सहु श्रावक गुरुओठर्या, खमासमणने देइने अहो जीवतां तेओ मर्या. ॥३९॥ क्षायिक समकित वर्या कृष्णने श्रेणिक राजा, नहि ते साधु गणाय सूत्रनी साची माझा: जाणो वळी समकित अरूपी सूत्रे भाख्यु, निश्चय समकित मतिज्ञानथी ग्रयुं न दाख्यु; क्षायिक समकित गुणने नहि को देखे ज्ञानथी, चारित्र विना नहि गुरुतो शुमाने अभिमानथी.॥४०॥
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