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कोइ कहे छे ग्रन्थ गृहस्थनो वांच्यो भावे, प्रगट्युं मुज समकित वदे इम मूढ स्वभावे; तेमाटे हुँ गुरु गृहस्थी मारा मार्नु, वदे एम मूरखनी आगळ कोइक छार्नु ग्रंथ वांचे गुरु हुवे तो सूत्र पहेलां मानीए, सूत्र विना नहि ग्रन्थ भव्यो तत्त्वथीज पिछानीए.॥४॥ प्रग ट्युं मुज समकित वदे इम मिथ्या वाणी, निश्चय नहि जणाय समकित वदता ज्ञानी%B व्यवहारे सम्यक्त्व वदो तो कांइ न हानि, समकितनहि व्यवहार विनामुनि श्रद्धाप्राणी; ग्रन्थ गुरु के ज्ञान छे तेनो अर्थ विचारजो, ज्ञान कहो तो गुरु ठा नहि समजी आतम
तारजो. ॥४२॥ प्रन्थ कहा गुरुरूप तदा तो ज्ञान ज नासे, गुरु ग्रन्थथी भिन्न जिनेश्वर एह प्रकाशे; परोक्ष गृहस्थी समकित दायक गुरु न कहीए, व्यवहारिकप्रत्यक्षपणे ते मन सद्दहीए, व्यवहारिक प्रत्यक्षथी मानो नहि जो वातने, नरकमांहि पामो परमाधामी लातने. ॥४॥ चलवीने पाखंड वदे जे उलटी वाणी, नहि ते श्रावक होय वदे जे मिथ्यावाणी. समकितदाता होय गुरू, नहि एवो प्राणी' सर्षव जेवा भव्य जनो तस वाणी घाणी, सर्व पापमां मोट• उत्सूत्र भाषण पाप छे, उत्सूत्र वाणी बोलतां तो दूरभविनी छाप छे. १.४४॥
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