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५७ बोले कोइ दंभ करी हुँ. अन्तर न्यारो, पुत्रादिक परिवार ग्रहुं नहि मनमा धारो; अध्यातमनो राग करीने तेमा राचुं, वर्ते मुज. चारित्र :भावथी जे छ साधु बकवादी केइ बोलता जूठी वाणी झेर छे, बोले कंह ने कंइ करे ने अन्तरमा अंधेर छे.॥१७॥
पडी अग्निमां कोइ कहे हुं कांइ न बळतो, लाख कुंभ कहे अग्नि पास हुँ कांइ न गळतो, बोले मृग वाचाळ सिंहथी कांइ न डरतो, समुद्रे पडी. अतारु. कहे हुं सहेजे तरतो; विपरीत एवी वातमा सत्य कशु नहि मानीए, कनककान्ता त्यागकर्याथी ज्ञानी सत्य पिछानीए.॥१८॥ देशविरति ने सर्वविरतिनी दुर्लभ सेवा, विरति गुणनी प्राप्ति अनुभव अमृत मेवा; विरति वंदन करी सभामां सुरपति बेसे, विरति सुखनुं मूळ जिनेश्वर मुखथी कहे छे; द्रव्य विरति सेवीने मुनिवर संयममा रमे, भाव विरति योगथी आत्मतेजे. झगमगे.॥१९॥ विरतिनो महिमा य जगत्मां मोटो भारी, धन्य सफळ अवतार जगत्मा जे अनगारी: द्रव्य क्षेत्रने काळ भावथी : संयम पाळे, ग्रही द्रव्यानुयोग ज्ञानथी गुण अजुवाळे; चरम करण अनुयोगथी समितिगुप्ति धारता, आतमध्याने तरे मुनिवर बोजाने वळी तारता.॥२०॥
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