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૩૫૮ साधु थइने क्रोध करे ते शार्थी मोदो, करे लोभथी शिष्य जगत्मां वाळे गोटो; साधु नहि देखाय संप्रति पंचम काळे, वदी एहवी वाण मूढ निज बोधि बाळे तीर्थोच्छेदक पापिया नरकगति मेमान छे, बुडे आपने पर वुडाडे मानव ए पाषाण छे.॥२१॥
चार खंड ने षड्दर्शनमां निरखी जोशो, जैनसाधुनो वेष धर्म त्यां परखी लेशो; दुक्कर दुकर धर्म साधुनो शिव सुखकारी, द्रव्य संयमने ग्रही पामशो भवजल पारी; खोटा साधु देखीने निन्दा सहुनी नहि करो, गुरुनिंदा कुल क्षय करे हितशिक्षा मनमां धरो.॥२२॥ साधु थइने क्रोध करे त्यां दूषण लागे, संज्वलक्रोधे दोष. लगे संजम नहि भागे; शिष्य करे त्यां नहि लोभ छे स्वारथ माटे, यदि लोभ जो होय प्रशस्य ज मुक्तिवाटे, अतिचार आलोववा प्रतिक्रमण बे वारर्नु, धर्माभ्यासे चित्त वाळे धन्य वदन अणगारवें ॥२३॥ साधु नहिं देखाय वदे ए मोटो पापी, लोपी सूत्रो आण प्रभुनी अहो उथापि; जाणो एनुं वेंण जगत्मां सहुथी काचुं, पापानो शिरदार देखवु वारो डाचुं उत्सूत्रवाणी जे वदे संधे । तेने ताडवा, जीनाज्ञा लोपी जनीने संघ बाहिर काढवा. ॥२४॥
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