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अहो वेष आचार ग्रहीने अभवी प्राणी, अवेके ले जाय कहे जिनवरनी वाणी; अभवाने पण बाह्य संयमथी पुण्य ज थावे, तो भवीने संयम थकी केम शिव न थावे: गुणठाणे गुण नीपजे संयम माथु पाळतां, अतिचार आलोवीने थाय पंक पखाळता.॥१३॥
संयमना आचारथकी अन्तर गुण थावे, उपशमादि धर्महेतुता तेमां आवे; राजमार्ग व्यवहार धर्मनो वेष ज साचो, जाय उपाधि दूर तेहथी मनमां राचो; रागद्वेषना हेतुने त्याग्याथी सह त्यागोए, जेम प्लेगादिक मृत्युना हेतुथी दूर भागीए.॥१४॥ मोह हेतुनो त्याग कर्याथी मोह प्रणाशे, मोह हेतुना त्याग कर्या विण मोह ज पासे; अध्यातमना रसिक थइने घरमां वसिया, कनककान्तासंगरंगथी मोहे फसिया; आतम आतम उच्चरे घरधंधे राची रहे, कहेणी रहेणी सम नहि ते भवसागरने शु ?तरे.॥१५॥ आनंदघन ने चिदानंद पण साधुवेषे, त्यागीने घरबार फर्या ते देशोदेशे; ज्ञाततणु फल विरति शास्त्रे साईं 'भाख्यु, ग्रही साधुनो वेष तीर्थंकर देवे दाख्युः कनककान्ता त्यागवी निर्मोहीनुं काम छे, कनकान्ता राखवी मोहतj ए धाम छे.॥१९॥
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