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३५५.
श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुनां बचन विचारों, बोल्या ज्ञाना सत्य दिलमां एंहिज धारा; द्रव्य वेषने पहेर्या विण नहीं श्रमण कहावे, व्यवहारे व विना नहि सुख तो थावे; व्यवहारे व थकी तो भावधर्म सहेजे मळे, मूढ कदाग्रही मानवो वज्रपेठे नहि गळे. ॥९॥
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काइक बोले बोल निश्चय धर्म छे साचो, नहि होवे जो गुण तदा तो वेष ज काचो; माटे गुणो पूजाय वेषथी कशुं न थावे, गुण आव्या विण वेषोनी नहिं गणती आवे; नाटकीय घरे वेषने वेषे शुं ? कारज सरे, एम एकांते बोलता मूर्खा नहि ठामे ठरे ॥१०॥
वेष विना नहि बेश साधुनुं नाम : ज सायुं, व्यवहारे छे वेष तेह विण सर्वे काचुं; बारीस्टर जो वेष धर्या विण मान न पामे, पोलीस वेष धर्या थकी सह मस्तक नामे; वेष धर्याथी साधुना आचारे परखाय छे, आचाराने देखीने साधु सत्य गणाय छे. ॥। ११॥
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नहि वेष आचारो नाम धरावे साधु, एवा ढोंगी लोके जगत सहु फोली खाधुं; वीरप्रभुए वेष साधुनो साचो भाख्यो, बृहत्कल्प व्यवहार प्रमुखे जोजो दाख्यो; साधु असाधु कोण छे ? निर्धार तेनो शुं करो, माटे संयति वेषने मानी भवसागर तरो .||१२||
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