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૩૫૪ आगार तजीने जे थया अनगारी शूरा, ग्रहे न दुर्जन जेह दुग्धमां काढे पूरा; सद्गुरु सेवो संत संप्रति पंचमकाळे, कनक कान्ता त्याग करीने संयम पाळे. काळ दोषथी उपजे असंयति घरबारियो, मुनि पेठे पूजाय छ; अहो जन्म ते हारियो, ॥५॥ नहि धर्म व्यवहार विना तो निश्चय आवे, कुंभकारने दंड विना नहि कुंभ ज थावे; नहि कारण विण काज जगत्माज्यां त्यां देखो, पुरुष स्त्री संयोग विना नहि पुत्र ज पेखो व्यवहारे वा विना निश्चय धर्म न पामीए, ते माटे मुनिवर गुरु पेखी मस्तक नामीए.॥६॥ त्रिज्ञानी जिनराय जगत्मां जन्मे ज्यारे, चोसठ इन्द्रो करे पूजन भावे तेवारे, अविरति कहेवाय गृहस्थावासे एवा, द्रव्य संयमने ग्रही भावथी वर्ते देवा; द्रव्य संयमथी पामीआ भाव धर्मने जिनवरा, तद्भव मुक्ति जाणे पण जे दीक्षा लेवे सुखकरा.॥७॥ कूर्मापुत्रे लां केवल भावे भवि जाणो, छींडीनो ए मार्ग वचन दिलमांहि आणो; भरतरायजी भाव धरीने केवल लोधु; देवो आव्या पास पण नहि वंदन कीg; यदि केवल ज्ञानी मुनि साधु वेष ग्रह्यो यदा, द्रव्य वंदनथी वांदीआ देवोए देखो तदा ॥८॥
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