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रत्नत्रयीमां रमतो राम, साधे क्षायिकभावे धाम; परस्वभावे ते नहि भमे, अनुभवी चेतनमां रमे. ॥५३ ॥ विकथामांहि पडे न व्हाल, मोहभावनी नासे चाल, अनुभव अमृत होवे पान, शोभे अन्तरमा मुलतान; नासे दुःखदायक महाकाल, विकथामांहि पडे न व्हाल. ॥२४॥ झळहळती जागे घट ज्योत, होवे अन्तरमांहि उद्योत, परस्वभावे रमवू झेर, आत्मस्वभावे अमृतल्हेर, क्यां दिनमणिने क्या खद्योत, झळहळती जागे घट ज्योत. ५५ झरमर झरमर वरसे धार, उपशम भावादिक सुखसार, भवदावानल होवे शान्त, नासे मिथ्यात्वादिक भ्रान्त; धन्य धन्य होवे अवतार, झरमर झरमर वरसे धार. ।। ५६ ।। भाव वीर्यथी होवे वीर, भाव धैर्यथी होवे धीर, प्रगटे आतम अनुभव नाद, चेतन करतो अमृत स्वाद; उतरे भवसागरनी तीर, भाव वीर्यथी होवे वीरः ॥५७॥ रम आतम भावे भव्य, तत्त्व थकी ए छे कर्तव्य, अनन्त शक्तिनुं तुं धाम, असंख्य प्रदेशी चेतनराम; परस्वभावो परिहर्तव्य, रमवू आतमभावे भव्य. ॥ ५८॥ आत्मस्वभावे रमवू श्रेष्ठ, परस्वभावे रम वेठ, आत्मस्वभावे रमतां इश, भाखे छे जिनवर जगदीश; केम चाहे छे पुद्गल ऐंठ, आत्मस्वभावे रमवू श्रेष्ठ. ॥ ५९ ॥ चेतन ज्ञाने प्रगटे धर्म, चेतन ध्याने नासे कर्म, चेतन इश्वर ध्याने थाय, अनन्त भवनां आस्रव जाय, घटमां शाश्वत प्रगटे शर्म, चेतन ध्याने प्रगटे धर्म. ॥६ ॥ चेतनहुँ चिन्तन सुखकार, चेतन नामे जयजयकार, चेतन सेवो सुख भरपूर, वाजे जेथी मङ्गल तूर; मङ्गलमाला भावे धार, चेतनहुँ चिन्तन सुखकार. ॥ ६१॥
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