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समभावे दुःखडा सहु सहे, चेतन भावे चेतन रहे. ॥ १९ ॥ जाति भाति तुं नहि वेद, दीन कल्पी क्युं करतो खेदः बाहिरभावे तुं नहि चेत, शाने फोगट थाय फजेत, धरजे अन्तरमा निर्वेद, जाति भात तुं नहि वेद. ॥ २० ॥ यश अपयशथी चेतन भिन्न, तेमां थावे छे क्युं लीन, * सारो खोटो दुनिया गाय, तेथी हारूं कांइ न जाय; धन सत्ताथी फोगट दीन, यश अपयशथी चेतन भिन्न. ॥२१॥ मन वैरीने मन छे मित्र, मननी बाजी छे विचित्र, मन पारो सद्ध्याने मरे, परम ब्रह्म त्यारे तुं खरे; मन जीत्याथी सत्य पवित्र, मन वैरी ने मन छे मित्र. ॥२२|| मन जीत्याथी झघडो जाय, चरण करणनो ए महिमाय, हळवे हळवे मन जीताय, सर्वोत्तम उद्यम उपाय; वीर जिनेश्वर वाणी गाय, मन जीत्याथी झघडो जाय ॥२३॥ बाह्यसंयमथी मन जीताय, जिनवरनी एवी आज्ञाय, अनेकान्त मारग सुखकार, भेद भाव त्यां नहीं लगार; अन्तरसंयम पण प्रगटाय, बाह्यसंयमथी मन जीतायें ॥२४॥ अन्तर संयम दोषो हरे, भवसागरने प्राणी तरे, अन्तर संयममा उपयोग, योगी साधे तेथी योग; भाव लक्ष्मीने सहेजे बरे, अन्तर संयम दोपो हरे. ॥२५॥ बाह्यांतर संयमथी मुक्ति, अनेकान्तनी एवी युक्ति; कर्माष्टकनो होये नाश, मुक्तिपुरीमां सहेजे वास; अन्तरगुण भोगोनी भुक्ति, बाह्यान्तरसंयमथी मुक्ति. ॥२६॥ बाहिहेतु बाहियोग, अन्तर हेतु छे उपयोग; बहिर संयम साध्योपाय, उपादान अन्तर परखाय, चिदानन्दनो वर्ते भोग, बाहिहेतु वाहियोग. ॥ २७॥
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