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अंधा आगळ दर्पण फोक, समजे नहि त्यु मोही लोक; मोहीने प्रगटे नहि ज्ञान, बाहिरा आगळ जेवू गान. ॥ ११ ॥ दृष्टिरागी मोही मूढ, समजे नहि अन्तरतुं गूढ; सद्गुरुवाणी सुणे न कान, तेने प्रगटे नहि निज भान, अशुभ व्यवहारे छे रूढ, दृष्टिरागी मोही मूढ. ॥१२ ॥ जिनवाणीनो मनमां वास, श्रद्धा साची समजे खास; वर्ते निश्चयने व्यवहार, सद्गुरु आणा ग्रहीने सार, उत्तम तेनो छे संन्यास, जिनवाणीनो मनमां वास. ॥ १३ ॥ भिन्न भिन्न जड चेतन ग्रहे, उपादेय चेतन सदहे; भिन्न भिन्न लक्षणथी बोध, गुणनो अन्तर करतो शोध, औदयिकथी न्यारो मन रहे, भिन्न भिन्न जड चेतन ग्रहे.।।१४।। रागद्वेष छे बाहिर योग, ए नहि साचो भव्यो जोग; क्षायिक भावे केवल योग, सत्य योगने जाणो लोक, मुख दुःख बाह्य विषयमां रोग, रागद्वेष छे बाहिर योग.।।१५।। रागद्वेषादिक दुःख मूळ, अज्ञाने वर्ते ए भूल; अनंत भवनां कीधां पाप, चतुर्गति पाम्या संताप, अज्ञाने मोडें ए शूळ, रागद्वेषादिक दुःखमूळ. ॥१६॥ राग दोपने त्यागे त्याग, धरजो चेतन तत्त्वे राग, चेतन वस्तु साची खरी, ते में हृदये भावे धरी; भाखे छे जिनवर वीतराग, राग दोषने त्यागे त्याग. ॥ १७॥ समजो षडद्रव्योनुं ज्ञान, तेथी जाशे ममता मान; अन्तर- अजवाछं ओर, मिथ्यातम व्यापे नहि घोर, आत्मानुभव अमृतपान, समजो पड्द्रव्योनुं ज्ञान. ॥१८॥ चेतन भावे चेतन रहे, शुद्ध चेतना चेतन लहे; अन्तर दृष्टि स्थिरोपयोग, आतम भोगवतो सुख भोग;
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