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अन्तर व्हारी शक्ति घणी, जाग जाग चेतन दिनमणि; रत्नत्रयीनो भोक्ता सार, व्हारा गुणनो नावे पार; चिदानन्द सोहे जगधणी, अन्तर व्हारी शक्ति वणी ॥ ३ ॥ शरीर पिण्डे बसियो साच, कर्म ग्रद्याथी भवनां काज; परमां शक्ति व्हारी मळे, तेथी तुं पुद्गलमां भळे, तुजविण पुद्गल जाणुं काच, शरीर पिण्डे वासियो साच ||४|| म्हारी शक्ति अपरंपार, अधुना कर्माच्छादित धार, चेतन ध्याने प्रगटे सर्व, अहंभावनो नासे गर्व; स्याद्वाद सत्ता सुखकार, त्हारी शक्ति अपरंपार. अज्ञाने जडमां सुख दुःख, मानी वेठी मोटी भूख; सुख दुःखना हेतु नहि सत्य, जडमां जाणो भव्य असत्य, रागद्वेष ने भ्रान्ति मुख, अज्ञाने जडमां सुख दुःख. ॥ ६ ॥ मन फेरे सुख दुःखनो फेर, नहि समज्याथी ए अन्धेर, मनधी आतम न्यारो भव्य, आत्मिक धर्मे तुज कर्तव्य; आत्मस्वभाव रमतां ल्हेर, मन फेरे सुख दुःखनो फेर ॥७॥ सुख दुःख बाह्यविषयमां थाय, तबतक मोहतणो महिमाय; सुख दुःख हेतु विषयो कह्या, वीरे ते मनमां सदह्या, पण पुद्गल संगे कहवाय, सुख दुःख बाह्य विषयमां थाय. ॥ ८ ॥ बाह्य विषयमां सुखनी आश, तबतक तुं पुद्गलना दास; बाहिर्मुखनी भ्रान्ति टळे, त्यारे शाश्वत सुखडां मळे, मोहमदिरानी दुर्वास, बाह्यविषयमा सुखनी आश. सुख दुःख बाह्यविषयमां शून्य, एवी घटमां लागे धून, अन्तर्यामी तब परखाय, बाह्यविषयमां समता थाय; चेतन ज्ञाने कांई न न्यून, सुख दुःख बाह्य विषयमां शून्य. १० बहिरा आगळ जें गान, विषधरने अमृतनुं पान,
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॥५॥