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परम महोदय जिनवर वन्दु, वे कर जोडी लागुं पाय. ॥१॥ नय सप्त ने चार प्रमाणे, षड् द्रव्यो भाख्यां निर्धार; सप्त भङ्गीमां रचना कीधी, अनेकान्तमतनी सुखकार, देशोदेश विहार करीने, समजाव्या ते सत्योपाय; परम महोदय जिनवर वन्दु, बेकर जोडी लागुं पाय. ॥२॥ दर्शन ज्ञान चरित्रे मुक्ति, विस्तारे समजाव्युं तेह; श्रावक साधु धर्म बताव्या, समजाव्या छे पञ्चे देह, औदायिक आदि पञ्चभावने, काथैया मुखथी तें जिनराय; परम महोदय जिनवर वन्दु, बे कर जोडी लागुं पाय. ॥ ३ ॥ दया धर्मना धोरी स्वामी, तीर्थंकर भव तारणहार; सङ्घ चतुर्विध महा तीर्थने, स्थापी कीघो छे उपकार, द्रव्य क्षेत्र ने काल भावथी, तत्त्व कथ्यां छे तें जिनराय, परम महोदय जिनवर वन्दु, वे कर जोडी लागुं पाय. ॥ ४ ॥ बहु उपकारी शिव सुखकारी, गुण त्हारा छे अपरंपार; तवगुण ध्यातां ध्येय स्वरूपे, ध्याता थावे छे निर्धार, बुद्धिसागर करुणा करशो, शरण शरण तुं छे मुखदाय; परम महोदय जिनवर वन्दु, वे कर जोडी लागुं पाय. ॥५॥
नवतत्त्वस्वरूप.
सवैया एकतीसा. जड चेतन आस्रव ने संवर, निर्जर बन्ध अने छे मोक्ष, सप्त तत्त्व ए चित्त विचारी, समजीने प्रत्यक्ष परोक्ष; अजीव आस्रव बन्ध त्रण ए, हेय विजाति हृदये धार, समजी चेतन सम्यग् ज्ञाने, भवजलधि तरशो नरनार. ॥ १ ॥ जीव संवर निर्जर ने मुक्ति, उपादेय तत्त्वो छे चार,
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