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થવ
ज्योति तदा हृदय झलके भवी कर्म कलंक बघा हरनारी धीनिधि चेतन सेवनथी यति धर्म ही सुख शाश्वत भारी
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ज्ञानस्तुति.
भुजंगी छंद.
सदा ज्ञानने वन्दिए भव्यभावे मनुष्यो लही ज्ञानने मुक्ति पावे, विना ज्ञान भव्यो गणो अन्ध जेवा, सदाज्ञाननी कीजिए भव्य सेवा ? जिनेन्द्र प्रभु ज्ञानने मुख्य भाखे, लही ज्ञानने तीर्थने सुरि राखे सदा सूर्यवत् जेह तत्व प्रकाशी, भवी प्राणियो ज्ञानना नित्य प्यासी २ उपादेयने यने ज्ञेय भावा सदा ज्ञानमां भासता ते स्वभावा जुओ श्वासप्रश्वासमा भव्य नाणी करे कर्मनी नष्टता सत्य जाणी सदा ज्ञाननी ज्योतमां सर्व भासे सहु ज्ञाननी ज्योतिथी कर्म नासे विना ज्ञान भव्यो न होवे विवेकी विना ज्ञानथी धर्मना को नटेकी 8 नमो ज्ञानने सत्यनुं जे प्रकाशी, कहो ज्ञानने उपमा गङ्ग काशी; दिले शोभतुं ज्ञान उद्योतकारी, श्रुत ज्ञानने वन्दना निव्य म्हारी. ५ जुओ सूत्रमां ज्ञान छे तीर्थ साधुं श्रुत ज्ञानना तीर्थमां नित्य राचुं; भणावो गणावो भणो भव्य भावे, श्रुत ज्ञानथी दोषना वृन्द जावे. ६ ग्रहो ज्ञान साधुं विनेय प्रकाशी, जगत्मां घणं दीपतुं जे विलासी; नमुं मुदा ज्ञानने पाय लागी, अहो बुद्धिथी चेतना शुद्ध जागी. ७
उज्वल ध्यान.
दोहरा • एकरूप हूं द्रव्यथी, एकरूप हुँ सश्व;
हुं तूं शम्या विकल्प सहु, शुद्ध, बुद्ध सुखतच. १
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