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४९.
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शुद्ध तत्र उपयोगथी, प्रगटे सत्यानन्दः अनुभवता ज्ञानी अहो, समजे शं मतिमन्द २ उपादान निमित्त दोय, भेदे धर्म कथाय जिनवरनी वाणी ग्रहे, भेद भाव सहु जाय. ३
श्री महावीर प्रभुस्तुतिः
चोपाइछन्द.
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वीर जिनेश्वर लागूं पाय, शरण शरण तूं छे सुखदाय; अडवडियांनो तुं आधार, तार तार सेवकने तार. जगमांसाचो तूं छे देव, सुखकर साची त्हारी सेव; हुं हुं पापीनो शिरदार, धाशे केवा मुज अवतारभणी भणीने भूल्यो भान, निशादन परभावे गुलतान; उता नहीं अन्तर्ज्ञान, ए सौ जाणो छो भगवान्. मननी चंचलता नहि मटी, लेश न परनी ममता घटी; मन मर्कटना अवळा फेर, वर्ते छे अन्तर अन्धेर. अमूल्य जीवन चाल्युं जाय, पण पस्तावो लेश न थाय; मोहे मुंझ्यो पामर जीव, पर स्वभावे रमे सदीव. केवल ज्ञानि जाणो सहु, जाणताने शुं बहु कहु; मनहुं मुझे मायाझाळ, अन्तरनो आवे नहि ख्याल. अहो गति शी मारी थशे, मळियुं जीवन चाल्युं जशे; हा हा जीवन सर्व, फोगट फुली कीधा गर्व. खरे दीवस मारे अन्धार, शीरीते पामिश भवपार; खरो एक त्हारो आधार, करजे पापीनो उद्धार. समजीने नहि करु प्रयत्न, ग्रह्यां न ज्ञानादिकै त्रिरत्न; ठाठ माठमां हार्यो सार, जिनजी व्हारो छे आधार ॥ ९ ॥
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