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ज्ञान श्रद्धा ग्रही भक्ति शक्ति लही, यत्न करजे प्रभु प्रेम धारी; बुद्धिसागर हवे चेतजे चित्तमां, विषयतृष्णा तणा वेग वारी. सत्य.७
आत्मध्यानमहिमा.
झूलणाछन्दः अलख निर्भय प्रभु देहमां व्यापियो, ज्ञान व्यापक विभु तुं सुहायो; ज्ञाननी ज्योतमां ज्ञेय भासे सकल, अकल अक्षर अरूपी कहायो.
अलख. ॥१॥ ज्ञेय भासक स्वतः चिद्घनानन्द तुं, भान भूली वस्यो तुं शरीरे; लाख चोराशिमां जन्म मृत्यु कर्या, कर्मथी चउगतिमां फरीरे.
अलख. ॥ २॥ कर्म कर्ता अने कर्म भोक्ता प्रभु, कर्म हा प्रभु तुं कहावे; आप भावे रमे कर्म कोटी खपे,कर्मना नाशथी सिद्ध थावे.अलख.३ कर्मने खेचतो कर्मने छंडतो, अन्य भावे अने स्वस्वभावे; कर्मनी वर्गणा आवती जावती,दोयपरिणामथी ते मुहावे.अकलख.४ दोय परिणाम ते भिन्न काले कह्या, वचन तीर्थेशनां सत्य जाण्यां; चारगति जाववा छेदवा तुं प्रभु, वचन सापेक्ष मनमांहि आण्यां.
अलख. ॥ ५ ॥ बन्ध परिणामथी धर्म उपयोगथी, सकल सिद्धान्तनो सार भाख्यो व्यक्तिथी व्यापियो देहमांहि प्रभु, व्याप्य व्यापक नये सत्यदाख्यो.
अलख. ॥ ६॥ सिंह तुं साहिबा कर्मपिंजर पडयो, जोइ ले चित्तमांहि विमासी; कर्मनो भार शो आप भावे रमे, कर्म छेदी हुवे सिद्धवासी. अलख. ७ चुंथतो शुं प्रभु कर्मनां चुंथणां, विषय मिष्टान्नने वित्त राची; सर्व पुद्गलतणुं कार{ रूप ए, भंड पेठे रह्यो केम माची. अलख.८
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