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धर्म झट कीजिए साथ ते आवशे, देख मनमा सदा ते विचारी; बुद्धिसागर सदा ज्ञानथी जागजे, त्याग वैराग्यथी ध्यान धारी.
जागः ॥ ४ ॥
योगमहिमा.
झलणाछन्दः योग विद्यातणुं धाम चेतन प्रभु, शक्ति सिद्धो समी रहि प्रकाशी; योगविन् मानवी चित्तमां ध्यानथी, पिण्ड ब्रह्माण्ड भावो विलासी.
योग. ॥ १ ॥ भूतमय वृत्तिथी भ्रान्तिमां भूलता, वृत्तिथी परप्रभु न प्रकाश्या; वृत्तिथी परमभु पामे नहि वैखरि, शुकल ध्याने पराभाव वास्या.
योग. ॥२॥ दीप ज्योतिः परे ज्योत ज्यां जागती, सहज उपयोगमा लीन वृत्ति; श्वास उश्वासनी मन्दता स्थीरता, बाह्यमां जाणिए शून्यवृत्ति. योग. ३ चक्र पड् भेदवां वायुनां पिण्डमां, गगन गढ चालवू वंकनाले; ज्योति झळहळ जगे शोक चिन्ता भगे, हंसलो शान्तिसुखमांहि
म्हाले. योग. ॥ ४ ॥ त्वरित शिवत्वनी प्राप्ति छे सहजमां, ग्रन्थी भेदी लहे मुक्ति साची; जीवतां मुक्तिनां सुख जे पामता, सिद्धि ते पामतो सत्य राची. योग.५ सत्य उत्तम अहो योगविद्या ग्रहो, योगना भोगमां भव्य राचो; चित्तलय चेतना शुद्धता ज्यां हुवे, योग महिमा लहो पिण्ड साचो.
योग. ॥६॥ पिण्ड ब्रह्माण्डनी ऐक्यता आत्ममां, शुद्ध उपयोगी जेह जागे; अष्ट सिद्धि सदा हस्त जोडी रहे, चित्त रंगाय नहि वाह्यरागे. योग.७
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