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प्रभातियु
झालणाछन्द. चेत चेतन प्रभु रटन कर आपनु, अलख निर्भय विभु तुं मुहायो; कर्म कर्ता कयो कर्म भोक्ता कह्यो,लक्ष चौराशिमां खुव जायो चेत.? उंघ नहि आतमा पामि मानवपणुं, ज्ञान वैराग्यथी ध्यान धर तुं राम रहेमान तुं शिव धाता हरि,आप बंधाय अब आप तर तुं. चेत.२ आत्मज्ञाने विभु व्यक्तिधी नहि कदा, शुद्धरूपे प्रभु तुहि समायो; भक्ति भगवन्तनी चित्तमां जागतां, ज्योति झगमग भइ स्थान पायो.
चेत. ॥ ३ ॥ शक्ति सिद्धि सकल जागती ध्यानथी,ध्यानथी कर्म सघळां विडारे शुद्ध निर्मल बनी मुक्तिसुख भोगवे, ज्ञानवैराग्यथी मोह मारे.
चेत. ॥ ४ ॥ जाग अब आतमा शूर थइ साहिबा, मोह माया थकी रही उदासी; बुद्धिसागर हवे टेक धारी प्रभु, अलखनी धुनमां सिद्धवासी.चेत.५
प्रभातियु.
झुलणाछन्द. जाग अब आतमा जाग अब आतमा,दील नवकारर्नु स्मरण कीजे; कोण हुँ शाथकी आवियो क्या थकी, कृत्य शुं आतमा केम छीजे.
जाग. ॥ १॥ हेय आदेयने ज्ञेय शुं जग विपे, आज लगी आत्महित शुं विचार्युः चेत चेतन प्रभु उंघ नहि आळमु, मोह मायाथकी जीवन हार्य.
जाग. ॥ २ ॥ श्वास उश्वासमा आयुरे जाय छे, वीतियुं जीवन नहि फेर आवे; राज राणा गया देव दानव गया, अमर नहि कोइ जगमां रहावे.
जाग. ॥ ३ ॥
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