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शुष्कज्ञानथी केइक भव जंझाळे झूल्या; परम्परागम त्यजीने भवदरिये कै डूल्या, शाब्दिक तार्किक पण्डितमाने केइक फूल्या; रही मायाना पाशमां जीव सोऽहं मुखथी उच्चरे, बुद्धिसागर ज्ञान विण ते भवसागरने क्युं तरे. ॥ १ ॥ कहेणि सम रहेणी नहि जेनी ते नहीं मोटा, बोली बणगां फूंके तेना नहीं छे तोटा; ज्ञान लही विरतिने वीरला सज्जन पामे, इन्द्रादिक ज्ञानी विरतिने शीर्षज नामे धन्य धन्य जगमा अहोते बोले तेने पाळता, बुद्धिसागर ज्ञानी ते पाप पङ्क पखालता. ॥२॥
व्यवहारधर्ममहत्ता.
छप्पयछंद. धरि धर्म व्यवहार टेकथी केइक तरिया, धरि धर्म व्यवहार मुक्तिने केइक वरिया; धरि धर्म व्यवहार थया केइ गुणना दरिया, धरि धर्म व्यवहार सिद्धमां केइक ठरिया; जल विना जेम वृक्ष देखो उभुं त्वरित सूकाय छे, व्यवहार धर्म जलाभावे तीर्थ वृक्ष छेदाय छे. ॥१॥ मूळविना नहि वृक्ष वृक्ष विण क्यांथी डाळां; जलविना नहीं भरियां जाणो नद ने नाळां, मात विना नहि पुत्र पुत्र विण कोनो वापा; वदन विना नही वेण होय शुं वचन विलापा, कारण विना न कार्य छे, जग समज समज भवि सानमा व्यवहार धर्म विना नहि छे भाव धर्म सुतानमा ।। २।
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