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अन्तरना ज्ञानथकी जाण्या अहो ज्ञेय सह, अन्तरना ध्यानमांहि योगियो मस्तान छे; सत्य जिनवाणी जाणी धीनिधि तुं चेती लेजे, चेतन विनानुं अन्य जाणजे तोफान छे. ॥१॥ ज्ञान अने क्रिया थकी मोक्षनो तो पन्धवहे, जरुर समयण दीलमां विचारजे; जिनवाणी सत्यजाणी सहहणा कर भवी, रत्नत्रयी ग्रही जीव पोताने तुं तारजे; अष्टसिद्धि नवनिधि रूद्धिनो भण्डार तुंहि, अनंत अनंत ज्ञेय ज्ञानथी जणाय छे; धीनिधि चेतन झट चित्तमांहि चेती लेजे, अनंत अनंत सुख तुजमां समाय छे. ॥२॥
मनहरछंद. पामीने मनुष्यभव पाप कर्या लाखो गमे, तेनी यादी करी जीव पश्चाताप कीजीए; हवेथी न पाप थाय एवं तो वर्तन राख, निजमां रमणताथी शिवसुख लीजीए; भूल्यो त्यांथी फेर गण हवेथी न भुल थाय, स्मृति एवी खातां पीतां चालतां तुं राखजे; विचारीने वेंण बोल विवेकथी सत्य तोल, ध्यानामृतस्वाद भवि प्रेमधरी चाखजे. ॥१॥ चेत अरे जीव जरा चित्तमा विचारी जोने, जडमां रमणताथी जड जेवो थाय छे; मोतिचारो हंस चरे विष्टाथी न प्रेम धरे, अरे हंस जीव केम विष्ठामां मुंझाय छे.
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