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जाति जीव हारी तेवी गीत तो अन्तर राख, चेतन स्वरूपमांहि चेतना समावजे; धीनिधि चेतनरूप पड नही भवकूप, परम स्वरुपमांहि चेतना रमावजे. ॥२॥
मनहरछंद. जड अने जीव दोय परिणम्यां पिंडमांहि, भेदज्ञानदृष्टिथकी भिन्न भिन्न धारजे. पय जल मिल्यां हंस चंचुथकी भिन्न करे, विवेकथी जीवहंस कर्मने विदारजे. कर्मनो संयोग तेनो अति जे वियोग थाय, सत्य मोक्ष दीलमांहि चेतन विचारजे. चेतननुं रूप जपे कर्म तो अनंत खपे, दर्शननी शुद्धताथी स्वरूप निहारजे. दुनीयाना प्रेमभाव विषना भरेला सहु, जाणी जीव शुद्ध प्रेम अन्तरमा धारीए. आधि व्याधि उपाधिथी भरेल भवाब्धि आतो, चरणना यानथकी चेतनने तारीए. पोते तो पोताने कहुं चेत झटपट अरे, वीती वेळा फरी कदी लेश नहि आय छे. धानिधि चेतन हवे वार न लगाड काइ, खरा तो बपोरे चौटामांहि शुं लुटाय छे. ॥२॥
मनहरछंद. दुर्लभ मनुष्य भव लही जीव चेत अरे, मुगुरुसंगतिथकी विवेक पमाय छे; भणीने भणतर भाइ विनयने धारवो,
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