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सन्तमळ्याथी मळीयुं समजो उत्तम नाणुं, सन्तमळयाथी मळीयुं समजो उत्तम टाणुं; सन्तसमागम दुर्लभ पण सुलभ छे ज्ञाने, सन्तसमागम थकी चतुर तो तत्त्व पिछाने; लोभी पामर प्राणीयो अहो सन्तसमागम नहि करे; सन्तसमागम कर्या विना जीव भवसागरने शुं तरे ? ॥२॥ कोइ कहे छे अमृत तो पाताळे रहेवे, ज्ञानी जन तो सन्त समागम अमृत कहेवे; कोइ तो पत्थरने चिन्तामणिज बोले, चिन्तामणि ते सन्त जनो छे पडदो खोले; सन्तसमागम कीजीये अरे अमृतप्याला पीजीये, चकोरने जेम चंद्र तेमज सन्त देखी रीझीये. सन्तसमागम अन्तर गुणने स्हेजे आपे, मायादुःख वल्लिने क्षणमां ते तो कापे; सन्त जनोनुं मान कर्याथी लघुता आवे, क्रोध मान इर्ष्यादिक दोषो क्षणमां जावे. सन्त जनोने देखीने जीव मान तेनुं बहु करो; बुद्धिसागर सन्त सेवे मुक्तिने क्षणमां वरो. ॥४॥ सन्तसमागम सफल सदा छे शास्त्रो गावे, कोइक विरला समजुना मनमां ते आवे; सन्त समागम शिवपुरनो साचो संदेशो, मानो तेने सत्य धरो नहि मन अंदेशो; संतो जंगम तीर्थ छे, अहो सन्तो जग सुखकार छ बुद्धिसागर सन्तसेवा जगत्मां जयकार छे.
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