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क्रोधे दुर्गति होय दीलमां एवं जाणी; क्रोध करे ने करावतो ते नरकगति मेमान छे; मानव पण नहि मानवी ते जाणजो हेवान छे. ॥४॥ क्रोधे नरके पडीया केइक पडशे प्राणी, क्रोधे राज्यविनाश क्रोधथी छे धूळ धाणी; क्रोधे सन्त न होय क्रोधथी होवे कूडो, क्रोधे कारज नाश क्रोधथी भाख्यो भूडो; सर्प यकी पण क्रोधथी, अहो मानव तो नीचो खरो, क्रोधाग्नि ज्यां सळगतो त्यां क्याथी समताजलझरो. ॥५॥ क्रोधे केइक चतुर्गतिमाही आयडीया; क्रोधे केइक लक्षणवंता पण लडथडीया; महा भैरव छे क्रोध तेहथी दुःखना दरीया, क्रोध तज्यो ते सन्त धन्य जग ते अवतरीया; क्रोध भयंकर प्लेगने अहो टाळीये समताजळे बुद्धिसागर सहनशीलता राखवाथी सहु मळे. ॥६॥
“सन्तसमागममहिमा"
छप्पय छंद. प्रगटे जो महा भाग्य सन्तनी सेवा लहीये, प्रगटे जो महा भाग्य सन्तनी पासे रहीये; प्रगटे जो महा भाग्य सन्तनी सुणीये वाणी, प्रगटे जो महा भाग्य मळे तो सन्त सुनाणी. इन्द्र चन्द्र नागेन्द्रनी अहो पदवी मळवी स्हेल छे, पण सन्त साचा प्राप्त करवा जगत्मां मुश्कल छे. ॥१॥
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