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१८४ क्रोध स्वरूप.
छप्पय. क्रोधे बोध निरोध, क्रोधथी होवे काढू; क्रोधे तनुमां ताप, क्रोधे छे द्रुम कंटाळ क्रोधे भूले भान, क्रोधथी ज्ञान न मूजे, क्रोधे काळो नाग, क्रोधथी लेश न बूझे. क्रोध कर्याथी मानवी नो भूत सरवो भासतो; क्रोध महा चंडाल जेवो धर्म दूरे नामतो. क्रोधे पडे न चेन, आंखमा लाली आवे; बोले कडवां वेण जगतमां दृष्ट कहावे; क्रोधे थावे घात क्रोधथी निन्दा थावे; क्रोधे मूके आल गाळ तो वचने आवे; क्रोध कळंकी कारमो छे, क्रोध ज्यां त्यां वेर छे क्रोध थकी तो कष्ट कोटी क्रोधे जगमां झेर छे. ॥२॥ नीच थको पण नीच क्रोध छे सहुथी बूरो, क्रोध महा विकराळ क्रोधथी पापी पूरो; क्रोधे पूर्व करोड वर्पनुं संयम जावे, क्रोधे मित्र न होय जगतमां ज्ञानी गावे; क्रोधाग्नि आळा थकी तो स्वपर आतमा सहु बळे; तप जप किरिया करो भव्य पण क्रोध सहित तो ना फळे.३ क्रोध नरकनुं द्वार क्रोध छे बळती सगडी; क्रोधे द्वीपायन तणी नो बाजी वगडी; क्रोधे वित्त विनाश क्रोधी होय न सारूं, महा पापनी तोप क्रोध छे तेमां दारु; केश अग्निथी तोप धड़के जननी हाणी,
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