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गुरुशरणथी लघुता दिलमां प्रगटे सारी, गुरुशरणथी निर्भय थावे नरने नारी; गुरुशरणथी मानादिक सहु दूरे नासे, गुरुशरणथी श्रद्धा साची हृदये भासे; गुरुशरणथी मानवी तो तत्व साचं पामशे, गुरुशरणथी जगत्मां अहो कीर्ति सघळे जामशे. ॥४॥ गुरुशरणथी संयम शक्ति प्रगटे भारी, गुरुशरणथी प्रगटे छे समता सुखकारी; गुरुशरणथी उद्धनाइ पहेली नासे, गुरुशरणथी कदाग्रहादि दूरे जाशे गुरुशरणथी संपजे छे, पंचम गति पलवारमां, सत्य शरणुं सद्गुरुनुं समजशो संसारमां. गुरुनी निंदा करी बदनथी केइक पडीया, गुरुगुण गाइ शिवपुर महेले केइक चडीया; गुरुनी आणा लोपी पामर केइक भूल्या, मायादरिये गुरु विना तो केइक झूल्या, आत्मज्ञान ज्ञाता गुरुतुं शरण सदा सुखकार छ गुरुविनये जे नित्य राता सफल तस अवतार छे. ॥६॥ गुरु ज्ञानथी देव इष्ट तो शिष्यो जाणे, सद्गुरुगमथी भव्य राचशो आतम ज्ञाने; सदगुरुगमथी सह समजाशे धरजो चित्ते. गुरुविनयथी खुश रहे छे पण नहि वित्ते, सद्गुरुना जे सेवको ते भवसागर स्हेजे तरे बुद्धिसागर गुरुशरणथी सत् संपत् शिष्यो वरे. ॥७॥
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