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संतोषे सहु सुख, लोभना त्यागे धारीलोभ त्यज्याथी मानवी, मंगळमाळा पाय छे, बुद्धिसागर ज्ञानयोगे, समतानंद सुहाय छे.
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गुरुभक्तिमहिमा
छप्पय छंद चाल.
गुरुभक्ति वण जीव तत्त्वने क्यांथी पामे, गुरुभक्ति वण जीव ठरे नहि निश्चळ ठामे; गुरुभक्ति वण तत्त्वज्ञाननी बात न जाणे, गुरुभक्ति वण प्रेमभावने क्यांथी आणे. गुरुविना नहि धर्म छे ने गुरु विना नहि शर्म छे; गुरु विना नहि ज्ञान मुक्ति गुरु विना तो भर्म छे. ॥ १ ॥ गुरुगम विण नहि ज्ञान सान तो क्यांथी आवे, गुरु विना नहि शास्वत सुखड पाणी पावे; गुरु विना नहि तप जप संजम किरिया साची, भव्यो गुरुनुं शरण करीने रहेजो राची; गुरुनी भक्ति साचवीने तप जप संयम सहु करो, गुरुभक्ति की भव्य जीवो भवसागरने झट तरो. ॥२॥ गुरु विना तो भवसागरमा भटके प्राणी, समजे नहि ते पामरप्राणी जिनवर वाणी; आपमतिथी अवळा चाले नगुरा प्राणी, नगुरा जीवो की न होवे सम्यग् नाणी; गुरु विना नहि सन्मति अहो मगटे छे उलटी मति; मायामां मस्तान थइ अरे पामे शुं ते सद्गति ? ।। ३ ।।
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॥ ७ ॥