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श्रुतज्ञाने धर्मनुं स्थापन जिनजी करता, सिद्धोने जणावी उपकारी पद वरता, ते माटे अर्हन् चन्दन पहेलु भाख्यु, जो जो नवकारे काल अनादि दाख्यु. ॥ ५ ॥ प्रभु शुधा पिपासा योगे अन्नने पाणी, लेवे निरवद्य कहे जिनवरनी वाणी, जव आयुष्य अवधि प्रभुनी पुरी थावे, प्रभु एक समयमां सिद्ध स्थानमां जावे. ॥६॥ जगलोचन जिनवर महा उपकारी देवा, कर भावे चेतन तीर्थकरनी सेवा, अरिहंत अनंत थया थाशे ने थावे, लळी लळी प्रणमुं तीर्थंकर साचा भावे. ॥ ७ ॥
२ सिद्धपद स्तुतिः॥
उम्पय छंद. सिद्ध भजो भगवंत, प्रभु शिव सुखना भोगी, निर्मल क्षायिक भाव, थकी निश्चयथी योगी, धरी अचल अवगाह, मुक्तिना स्थान सुहाया, सर्व कर्मथी मुक्त, सिद्ध शिव नगरी राया, अज अमर परम जिनराजने, वन्दतां दुःख जाय छ. स्वामी सेवकभाव नहि ज्यां, शर्म अनंतुं थाय छे ।। १ ।। वन्दो पूजो सिद्ध बुद्धने निशदिन ध्यावो, सिद्ध बुद्ध परमात्म विभुने निशदीन गावो, सिद्ध सनातन परम महोदय शिवमां वसीया,
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