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॥१॥
॥ २॥
॥४॥
परमपावचन.
दुहा. सत्य सदा जिनधर्म छे, सत्य सदा जिन देव सत्य सदा मुनिवर गुरु, करवी प्रेमे सेव. तीर्थकर सर्वज्ञ छ, सत्य कहे छे तत्त्व, श्रद्धा साची राखवी, ज्ञान लही महासत्त्व. अनुमान आगमथकी, जिनवर वाणी सत्य; वीतराग सर्वज्ञ छे, वदे न वाक्य असत्य. जिनवाणीने जाणतां, समकित निर्मल होय; सर्वांशे परिपूर्ण छे, जिनवाणी अवलोय. जिनवाणीने जाणवा, गुरुगम लेजो भव्य; सार सार आदेय छ, तत्त्वथकी कर्तव्य. जैनधर्म जगमां वडो, आत्मोन्नति करनार; दसण नाण चरितथी, भवि शिवपद वरनार. पुद्गल बाह्यपदार्थथी, चेतन भिन्न सदाय; निश्चयथी मन जाणतां, भवभयभ्रान्ति जाय. असंख्यप्रदेशी आतमा, वर्ते देह प्रमाण; प्रतिशरीरे भिन्नभिन्न, अनन्त आतम जाण. अप्पा परमप्पा कह्यो, सत्ताथी आ जीव; क्षायिक भावे व्यक्तितः, होवे जीवनो शीव. सात नयोथी जाणीने, अन्तर चेतन देव; बुद्धिसागर ध्यानथी, साची करवी सेव.
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ॐ नमः मुनि गुरु स्तुतिः ओधवजी संदेशो कहेजो, श्यामन-ए राग. पिस्तालीश आगम पंचांगी देखतां, पञ्चमहाव्रतधारि मुनि गुरु होय जो;
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