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जंगम तीरथ कामधेनु कामकुंभ सम; गुरुविण ज्ञान नहि समये कथाय छे, व्यवहार संयमथकी उपाधि अळग जायः व्यवहार संयमथकी निश्चय पमाय छे. व्यवहार संयमधारि सद्गुरु सेववाथी; भवजलनिधि दुःखदायि हि तराय छे, चिदानन्द गुणधाम रमता चेतनराम; धीनिधि शरण गुरु भवमा सदाय छे.
॥२॥
ॐ नमः सुख, स्थान.
मनहर छंद. महा दुखदायि भव दावानल झालमांहि, पडया दुःख पाम्या अने पाछा केइ पामशे; क्रोध मान माया लोभमांहि नथी सुख लेश, अन्तरमा सुख आश थकी सुख झामशे. अथिर अचळ बाह्य विषयमा सुख नहि, नित्य सुख अन्तरमा अनुभवी जाणशे; द्रव्य गुण पर्याय स्वरूप समजी जीव, अनन्त अखण्ड चिरन चित्त आणशे. देखी देखी जुओ त्यारे देखवानुं बाह्य नहि, जाणी जाणी जाणो भाइ जाणवू अनन्त छ आदेय आदेय एक चेतन आदेय छ, शोधीने शोधीने जुओ चेतन हि सन्त छे.
॥१॥
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