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(२१) જૈન વેદો સબંધ તથા હિંદુ વેદ સંબધિ જૈનાચાર્ય વિજયાનંદસૂરિજીના હવે નીચે પ્રમાણે વિચારે
પ્રગટ કરવામાં આવે છે. यथा आदिदेव (ऋषभदेव) का पुत्र, अवधिज्ञानवान्, आदिचक्री, भरतराजा श्रीमदादिजिनरहस्योपदेशसें प्राप्त किया है सम्यक्श्रुतज्ञान जिसने, सो भरतराजा सांसारिक व्यवहार संस्कारकी स्थितिके वास्ते, अर्हन्की आज्ञा पाकरके, धारे हैं ज्ञानदर्शनचारित्ररत्नत्रय करणा करावणा अनुमतिसें त्रिगुणरूप तीनसूत्र मुद्राकरके चिन्हित वक्षःस्थलवाले ब्राह्मणोंको माहनोंको पूज्य तरिके मानता हुआ, और जिस अवसरमें अपनी वैक्रियलब्धिसें चार मुखवाले होके, चार वेदोंका उच्चारण करता भया. तिनके नाम-संस्कारदर्शन १, संस्थापनपरामर्शन २, तत्त्वावबोध ३, विद्यामबोध ४, सर्वनयवस्तु कथन करनेवाले इन चारों वेदोंको माहनोंका पाठ करता हुआ. तद पीछे वह माहन सात तीर्थकरोके तीर्थतक अर्थात् चन्द्रप्रभ तीर्थकरके तीर्थतक सम्यक्त्वधारी हैं, और आर्हत श्रावकोंको व्यवहार दिखाते रहें, तथा धर्मोपदेशादि करते रहें. तद पीछे नवमे तीर्थकर श्रीसुविधिनाथ पुष्पदंतके तीर्थक व्यवच्छेद हुए, तीस बीचमें तीन माहनोंने परिग्रहके लोभी होके, स्वच्छंदसे तिन आर्य वेदोंकी जगे कुछक सुनी सुनाइ बातों लेके नवीन श्रुतियां रची, (क्रमसें ऋग्, यजुः, साम, अथर्व, नाम कल्पना करके, मिथ्यादृष्टिपणेको प्राप्त करें ) तब व्यवहार पाठसे पराङ्मुख अर्थात् परमार्थ रहित मनाकल्पित हिंसकयज्ञ प्रतिपादक शास्त्रोंसे पराङ्मुख ऐसे शीतलनाथादिके साधुओंने तिन हिंसक वेदोंको छोडके जिनप्रणीत आगमकोही प्रमाणभूत माने. तिन ब्राह्मणोमेंसें भी जिन माह
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