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वृक्षादीनांदयाकार्या, हिंसा कार्या न पक्षिणाम्
अनाथादिमनुष्याणां पालनंपुण्यहेतवे ॥ ३४ ॥ वृक्षपश्वादिजीवाना, मुपग्रहैश्वजीवनम् : मनुष्याणां भवत्येव, कुरु परोपकारताम् ॥ ३५ ॥ दयासेवादिसत्कर्म, कुरूपकारिणः प्रतिः धनसत्तादिभोगेन, दुःखिजीवदांकुरु ॥ ३६ ॥ क्रोधे / वैरभावेन, हिंसां मा कुरुदेहिनाम् देशराज्यादिलोभेन, हिंसां मा कु/देहिनाम् ||३७| धर्मयुद्धादिमोहेन, हिंसां मा कुरु देहिनाम् : वर्णरंगादिमोहेन, हिंसां मा कुरु देहिनाम् ||३८|| देवदेव्यादिपूजाया) मिषेण पशुपक्षिणः माजहि देवदेव्यस्ते, खादति न पशून् वम् ||३९ ॥ दयाधर्मसमो धर्मो न भूतो न भविष्यति: दयादानादिसत्कार्यै, मेघवृष्टिवशान्तयः ॥४०॥ यत्रहिंसाजनादीनां धर्मभेद: परस्परम् : तत्रराज्येच देशे च दुःखराशिपरम्परा ॥४१॥ स्वधर्मिसंघवृद्ध्य, माजहि भिन्नधर्मिणः कस्याsविदेहिनोहिंसां, मा कुई धर्मगर्वतः ॥४२॥ भिन्नधर्मिजनान् हत्वा मा कु/ध्व स्वधर्मिणाम् : वृद्धिं हिंसा भवेयत्र तत्र धर्मो न लेशतः ॥४३॥ अहिंसासर्वलोकानां सर्वजातीयधर्मिणाम्: कर्तव्या न्यायधर्मेण, नाऽस्तिधर्मोदयांविना ॥ ४४ ॥ दुष्टिनानक लोकेषु हिंसाबुद्धिंतु मा कुरु विरुधर्मिणहिंसा, मा कुरुष्व दांकुरु ॥४५॥
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