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हिताहितं मनोरामं । वचः शोकावहं चयत् ॥ श्रुत्वापियो न श्रृणुते । बधिरः स प्रकीर्त्तितः ॥
हितकर या अहितकर मनने हर्षदायक के मनने खेदजनक एवी वाणीने सांभळतां छतां पण जो सांभळतो नथी अर्थात् तेने क्षुद्र हर्ष शोकादिना कारणरूप वाणीथी थनार हर्ष शोकादिने प्राप्त तो नथी ते बधिर छे. आ प्रकारनुं धरत्व यदि प्राप्त थाय तो मोटा पुण्यनी निशानी वळी बधिरत्व त्रण प्रकारनुं छे. १ एक तौ श्रोतेन्द्रियना ध्वंसथी, माप्त थयेलं, बीजुं क्षुद्र त्राणी केवळ अहितकर वचनोने श्रवण करतो छतो हितावह वाक्योने श्रवण करतो नथी ते स्वार्थ तत्पर थयो छतो कोइनी निंदाना शब्द सांभळे, स्त्री कथा श्रवण करे, पैसो पैदा करवानी वात श्रवण करे, पण जेथी आत्महित थाय एव धर्म कथा सद्गुरु पासे सांभळे नहीं, व्याख्यान सांभळवा जाय नहीं एवा मनुष्यो पण वस्तुतः जोतां श्रवणेंन्द्रियनो सदुपयोग नथी करता, तेथी बधिर जाणवा, त्रीजुं संपूर्ण हित वचनोने श्रवण करनार छतां अहितहितकर वचनो कर्णे पडतां पण तेना प्रति लक्ष करवा रूप श्रवणने जे करतो नथी. अहितकर वचनोथी जेना मनमां विकल्प संकल्प उठता नथी. धर्मकथामांज जेनी श्रवणेन्द्रिय तत्पर छे. राज्यकथा, मिथ्यात्वकथा, स्त्री कथा, बुद्ध कथा, विषय कथा श्रवण करवामां जेनी श्रवणेन्द्रिय तत्पर नथी.
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