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छे. अहो ते दीवस क्यारे आवशे के हुं वैरी अने मित्र बेना उपर तथा सुवर्ण अने पाषाण उपर समभाव धारण करी दीक्षा अंगीकार करीश, कारणके यतिधर्म सर्व धर्ममां श्रेष्ट धर्म छे, एवा मनोरथ जेना मनमां वर्ते ते दीक्षा योग्य छे. जेथी जिनशासननी अपभ्राजना थाय, तेवा मनुण्यने दीक्षा आपवी नहि. जिनेश्वरनो अनेकांत मार्ग छे, माटे कोइ वातनी यथार्थ स्वरुप जाण्या विना हठ करवी नहीं जेनाथी आत्मा धर्म पामे ते धर्मगुरु कहेवाय छे, तेमनी तन मन धनथी भक्ति करवी, तथा बहुमान करवू, दुनियामां धर्म गुरुनो उपकार काळी शकातो नथी, गुरुनी निंदा करवी नही, गुरुनी निंदा वीजा करता होय तो तेमने वारवा श्रीसदगुरुने आवता देखी बे हाथ जोडी ऊभा थर्बु, सुखसाता पुछवी, धर्ममां वहेतुं तेमतुं शरीर रोग रहित छे के केम तेनी तपास करवी. अशन, पान, खादिम, स्वादिमथी गुरुना शरीरनी स्वस्थता राखवी. शरीर आगगाडीना इंजीन सरखं छे, तेमां अन्नरुपी कोयला भर्या विना पोतानुं काम बजावी कशेतुं नथी, माटे तेने भाडं आपा जोइए. वस्त्र, पात्र, पुस्तकथी गुरु महाराजने प्रतिलाभवाधर्मनां उपकरणोथी धर्म साधी शकाय छे. तेथी तेने परिग्रह कही शकातो नथी. मुच्छा परिग्गहोवुत्तो मूछी तेज परिग्रह जाणवो. सामान्य मनुष्य करतां पण धर्म गुरुनी परीक्षा करवी कठीन छे. तो पण बुद्धिवंत पुरुषो सहवास वडे परीक्षा करी सदगुरुने जाणी शके छे. योग्यायोग्य निश्चय करवामां सर्व
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