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मनुष्यनी बुद्धि एक सरखं काम करी शकती नथी. माटे सुज्ञ पुरुषे पोताना कल्याण निमित्त योग्य विचारथी करेला निश्वयमां अन्यनी संमतिनी खास अपेक्षा राखवी. अधिक उपयोगी गुरुनो सेवक कर्म कलंक खपावी मुक्ति जाय छे. घणा माणसो श्रीसद्गुरु सद्गुरु करे छे पण तेमनी भक्ति अने श्रद्धा तथा बहु मान करनारा थोडा होय छे. कां छे केगुरु दीवो गुरु देवता. गुरु तेज हृदयमा रहेला अंधकारनो नाश करवा दीवा समान छे, गुरु तेज देवने पण ओळखावनार छे. गुरुनो देषी नरकमां जाय छे. जे सज्जन पुरुष होय छे ते कदापि काळे गुरुनी निंदा प्राण जाय तो पण करता नथी. जे गुरुना उपासक होय छे, तेमनी बुद्धि निर्मळ रहे छे. ब्राह्मी औषधि खावाथी जेम बुद्धि निर्मळ रहे छे, तेम गुरु महाराजने वंदन अने तेमनी भक्ति करवाथी बुद्धि निर्मळ थाय छे. गुरुनी निंदारुप हलाहल विष कदापि काळे पीयूँ नहीं. जे गुरु महाराजनी सन्मुख मधुर भाषण करे छे, अने पाछळथी निंदा करे छे ते दुर्जन जाणवा. तेमनुं मुख गुदा के जेमांथी विष्टा नीकळे छे; तेना करतां पण खराब जाणवू, भक्तिथी मुक्ति आ महा वाक्यमां घणो अर्थ समायो छे. गुरु महाराजने त्रण खमासमण देइ सुखसाता पुछवी. त्रण प्रदक्षिणा पण देवी देवना करतां पण गुरुनी अधिक भक्ति साचववी.
यतः गुरु देव दोनुं खडे किसकुं लागुं पाय.
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