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आत्म स्वरुप आन छे. केटलाक संसारना दुःखयी त्रास पामीने दीक्षा अंगीकार करे छे, पण अंते सद्गुरुरुप पार्श्वमणि संयोगथी ज्ञान गर्भित वैराग्य पामी आत्महितमां प्रवृत्ति करी शिवपद पामे छे. केटलाक मानथी दिक्षा अंगीकार करे छे, तोपण सद्गुरु संयोगथी ज्ञान प्राप्ति करी माननो नाश करी स्वआत्महित साधे छे. जेम दशार्णभद्र राजर्षिए मानथी दीक्षा लीधी हती, पण अंते माननो त्याग कर्यो केटलाक दीक्षाथी मोक्ष मळशे एटलुंज मात्र समजी दीक्षा अंगीकार करे छे, तो पण सद्गुरुनी प्राप्तिथी अने तेमना बोधथी विशेपतत्त्वस्वरुप समजी अंते यथार्थ तस्व निश्चय करी सम्यक्त्व पामी मुक्तिपद पामी शके छे, केटलाक शियाळनी पेठे दीक्षा अंगीकार करी, सिंहनी पेठें पाळे छे. केटलाक सिंहनी पेठे दीक्षा अंगीकार करे छे, अने सिंहनी पेठें पाळे छे. जेम सिसेना दिवाकरसुरि, श्रीहरिभद्रमुरि, श्रीयशोविजय उपाध्यायजी विगेरे.
दीक्षा लेनार बाळक अगर जुवान होय, पण वैराग्यनी तेमां मुख्यता छे केमके तेने संसार असार भास्यो छे. संसारमां दरेक सांसारिक क्रियाथी आश्रव ग्रहाय छे. संसारमां कोइनुं कोइ नथी; आत्माथकी सर्व वस्तु न्यारी छे. माता पिता भाइ बेन ए पण पोतानां नथी; शरीर पण पोतानुं नथी. आ संसामां फक्त सर्व सावद्यनो नाश करनारी एवी जिनेश्वर भगवाने कहेली मत्रज्या तेज संसार समुद्र तरवामां नाविका समान
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